कांस्टेबल भर्ती परीक्षा में लगे धांधली के आरोपों ने पुलिस की बची-खुची साख को बट्टा लगा दिया है। डीआईजी स्तर के अधिकारी के रहते हुए पुलिस अधीक्षक कार्यालय में यदि ऐसा ‘खेल’ हुआ है तो यह समूची पुलिस व्यवस्था को कटघरे में खड़ा करता है। अन्याय भर्ती से वंचित अभ्यर्थियों के साथ ही नहीं हुआ, आघात उन युवाओं को भी लगा है जिन्होंने मेहनत के बल पर परीक्षा उत्तीर्ण की है।
उन लोगों का भरोसा भी पुलिस पर से उठेगा जो न्याय की आस में फरियाद लेकर आते हैं। नींव को खोखला करने वाले यदि महकमे के अंदर ही होंगे तो क्या यकीन किया जाए कि ऐसे लोगों के तार समाज के खिलाफ काम करने वालों से नहीं जुड़े होंगे। नौकरी खरीदकर आने वालों से भी यह उम्मीद करना बेमानी होगा कि वे सेवा और सुरक्षा की भावना से पुलिस में आ रहे हैं। उनकी प्राथमिकता उस राशि को सूद सहित वसूल करना रहेगी, जो नौकरी के लिए बतौर ‘रिश्वत’ दी जाती है।
ऐसी जुर्रत करके नौकरी पाने वाले न कायदे की मर्यादा रखते और न कानून से डरते हैं। लाखों के वारे-न्यारे कर नौकरी दिलाने वालों को भय होता तो वे उच्चधिकारियों की नाक तले सारा सिस्टम अपने मनमाफिक नहीं चलाते। अब देखना यह है कि ‘मुर्दे’ से भी सच उगलवाने की कहावत को चरितार्थ करने वाली पुलिस अपने ऊपर लगे आरोपों की जांच कितनी गंभीरता और ईमानदारी से करती है। अभी तक विभाग का रवैया ढुलमुल रहा है। जांच यदि मुख्यालय के अधिकारी की बजाय सीकर से ही करानी थी तो इतनी देर नहीं की जानी चाहिए थी। जिन पुलिसकर्मियों पर अभ्यर्थियों ने आरोप लगाया है, वे भी उन्हीं शाखाओं में पदस्थ हैं।
यदि जांच में किसी को बचाने की कोशिश की गई तो हाथ पुलिस के ही जलेंगे। यह महकमे को तय करना है कि वह अपनी प्रतिष्ठा को बचाए रखेगा या फिर बेशर्मी से बर्बाद होते देखेगा। यदि सबकुछ सही और नियमानुसार हुआ है तो उसके भी ठोस प्रमाण सार्वजनिक करने होंगे, तभी खोई हुई साख लौट सकती है। आए दिन होने वाली ऐसी घटनाओं से परीक्षा प्रणाली पर भी सवालिया निशान लगना लाजिमी है।
कांस्टेबल, बीएसटीसी जैसी परीक्षाओं में क्यों स्थानीय स्टाफ लगाया जाता है। जिला-शहर बदलना तो दूर, उसी स्कूल का स्टाफ परीक्षा केंद्र पर वीक्षक बन जाता है। ऐसे में कई बार स्टाफ की गड़बड़ी की तोहमत भी संस्थान पर लगती है। कसूर उन अभ्यर्थियों का भी कम नहीं है, जो कमरे में चुपचाप नकल होते देखते रहते हैं। क्यों नहीं उसी समय आवाज उठाई जाती। हम क्यों अपने सपनों को आंखों के सामने मरता देखते हैं।
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