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Wednesday, February 8, 2012
Police Policy: Delhi: क्या कहते है हमारे गृहमंत्री policing पर, पढ़िए पी चिंदम्बरम् का अमेरिकी अखबार वॉल स्ट्रीट जर्नल को दिया इंटरव्यू...
एक साक्षात्कार में, भारत के गृहमंत्री और देश के शीर्ष कानून प्रवर्तन अधिकारी, पी.चिदबंरम ने पुलिस बल में भ्रष्टाचार और अव्यवस्था के मुद्दे पर बात की और इस दिशा में सरकार के प्रयासों के बारे में बताया। पेश हैं, साक्षात्कार के संपादित अंश:
डब्ल्यूएसजे: कांग्रेस नेतृत्व वाली आपकी सरकार ने भारत में कानून प्रवर्तन में सुधार के लिए क्या-कुछ किया है?
श्री चिदबंरम: आपराधिक न्याय के प्रशासन और नगर व्यवस्था के स्तर पर, ये वो मामले हैं, जो विशिष्ट रूप से राज्य के अधिकार क्षेत्र में आते हैं, हमने मदद की कोशिश की। विभिन्न संस्थानों की रचना कर नियंत्रण और संतुलन स्थापित किया-उदाहरण के लिए, मानवाधिकार आयोग, जो राष्ट्रीय और राज्य दोनों स्तरों पर मौजूद है। फिर तमाम आयोग भी हैं, जो ज्यादा कमज़ोर वर्गों, मसलन अनुसूचित जाति, जनजाति, महिलाओं और बच्चों के मामलों में डील करते हैं। यूं तो इनमें से प्रत्येक वर्ग के लिए राष्ट्रीय स्तर पर कई आयोग गठित किए गए हैं, लेकिन ज्यादातर राज्यों ने भी अपने-अपने आयोग गठित किए हुए हैं।
सुप्रीम कोर्ट ने पुलिस में सुधार के लिए न्यूनतम उपाय करने हेतु एक ढांचा पेश किया है। जिसके बाद हमने राज्यों पर इस तंत्र को लागू करने की ज़रूरत के लिए दबाव बनाया। उदाहरण के लिए, राज्य स्तर पर एक कमेटी हो, जो स्थानांतरण और पद स्थापन का फैसला करे, दूसरी कमेटी का काम पुलिस के खिलाफ शिकायतों से निबटना है। ज्यादातर राज्यों ने इन कमेटियों की स्थापना की है, कुछ ने नहीं की है।
बल्कि जिन राज्यों ने इन कमेटियों का गठन किया है, उनमें से ज्यादातर कार्यात्मक नहीं हैं और वास्तव में उन अधिकारों का इस्तेमाल नहीं करती जिनकी उनसे उम्मीद की जाती है। सुप्रीम कोर्ट अब भी लगातार मामलों की सुनवाई कर रहा है और उन राज्यों की खिंचाई करता रहता है, जिन्होंने या तो कमेटियां बनाई ही नहीं हैं या फिर बनाई हैं, तो उन्हें किसी तरह के अधिकार ही नहीं दिए हैं। हम सुप्रीम कोर्ट द्वारा खींचे गए सुधारों के खाके का पूर्ण रूप से समर्थन करते हैं।
लिहाज़ा, मैं समझता हूं कि यह एक मिलाजुला अनुभव है: आपराधिक कानूनों में कुछ संशोधन, सारभूत कानूनों के साथ-साथ प्रक्रिया संबंधी कानून, पुलिस और कुछ अन्य क्षेत्रों पर नियंत्रण और संतुलन के लिए कुछ संस्थान या फिर कोई तंत्र और राज्य सरकार पर सर्वोत्तम प्रथाओं के पालन हेतु दबाव डालना। उदाहरण के लिए, हमने राज्यों में पारदर्शी भर्ती प्रक्रिया और समुदाय पुलिस पर एक कानूनी मॉडल भेजा है।
डब्ल्यूएसजे: कृपया हमें बताएं कि आप पुलिस में भर्ती को ज्यादा पारदर्शी बनाने हेतु किस तरह के प्रयास कर रहे हैं?
श्री चिदबंरम: हमने राज्यों से भर्ती के उस मॉडल की पेशकश की है, जिसे हमने केन्द्रीय पुलिस बल के लिए योजनाबद्ध किया था, इसके तहत कॉन्स्टेबलों के चयन में मानव तत्व और व्यक्तिपरकता बहुत कम रहती है। सभी योग्यता वाले मानक ही हैं- विशेष शारीरिक मानक या विशिष्ट शैक्षणिक मानक सहज ही एक अहर्ता बन जाती है।
और उसके बाद, यह बस श्रेणी के क्रम से जुड़ा एक मुद्दा है, जो लोगों के प्रदर्शन पर आधारित है। लिहाज़ा यहां पारदर्शिता काफी ज्यादा है और कॉन्स्टेबल की नियुक्ति में किसी तरह की व्यक्तिपरकता का तत्व निहित नहीं है। कॉन्स्टेबलों की नियुक्तियों में आधारभूत खामियां थीं। उत्तर प्रदेश पहला राज्य है, जिसने इस व्यवस्था को अपनाया है। एक महिला पुलिस अफसर की अगुवाई में भर्ती प्रक्रिया को निसंदेह काफी अच्छा बना दिया गया है।
कुछ अन्य राज्यों ने एक या दो बदलावों के साथ इस व्यवस्था को अपनाया। लेकिन मैं समझता हूं कि पहले के मुकाबले पिछले दो तीन सालों में भर्ती प्रक्रिया काफी पारदर्शी बन गई है। नई व्यवस्था के तहत, अब यह प्रक्रिया केन्द्रीय पुलिस बलों में पूरी तरह से पारदर्शी बन गई है।
डब्ल्यूएसजे: पुलिस बल में भ्रष्टाचार आलोचना का एक आम मुद्दा है। अन्य के अलावा मुंबई के पूर्व पुलिस कमिश्नर जूलियो रिबेरियो ने मुझसे कहा था कि भ्रष्टाचार भर्ती में व्यवस्थित हो गया है, उम्मीदवारों से कॉन्स्टेबल के पद के लिए नियमित तौर पर रिश्वत की मांग की जाती है। आलोचकों का कहना है कि ये पैसा राज्य के राजनेताओं के पास जाता है, जो ना केवल भर्ती को, बल्कि अनुशासन, स्थानांतरण और संपूर्ण पुलिस बल में अफसरों की पोस्टिंग को भी प्रभावित करते हैं। पुलिस कमिश्नर राजनेताओं की इच्छापूर्ति के लिए बाध्य हो जाता है क्योंकि वो पुलिस कमिश्नरों की पोस्टिंग और स्थानातंरण को भी नियंत्रित करते हैं। ये आलोचक कहते हैं कि पुलिस कमिश्नर अपने लोगों पर नियंत्रण नहीं रख पाते और फोर्स में नाममात्र का अनुशासन रह जाता है।
श्री चिदंबरम: मैं इन आलोचनाओं को स्वीकार करता हूं, लेकिन मैं इस बात को तब पसंद करता जब ये आलोचक पद पर रहते हुए, इन सुधारों को लागू करते, सेवानिवृत्त होने पर महज़ अपने परवर्तियों की आलोचना नहीं करते। ये सभी बहुत काबिल पुलिस अफसर रहे हैं, जिन्होंने समय-समय पर पुलिस दफ्तरों की अगुवाई की है, तब उन्हें इन सुधारों को लागू करना चाहिए था।
डब्ल्यूएसजे: क्या पुलिस कमिश्नर सुधारों को लागू कर सकता है? क्या विधायी सुधार राज्य व्यवस्थापिका द्वारा नहीं किए जाने चाहिए?
श्री चिदंबरम: ये पुलिस कमिश्नर जब पदभार संभाल रहे थे, तब उनके पास अधिकार थे, उन्हें इन सुधारों के लिए अपने राजनीतिक आकाओं के सामने बोलना चाहिए था। इनमें से कुछ ने ऐसा किया भी था।
डब्ल्यूएसजे: कमिश्नर रिबेरियो ने कहा कि एक पुलिस कमिश्नर के लिए यह मुश्किल है कि वो राज्य के राजनीतिक नेतृत्व की इच्छाओं को पूरा करने से इन्कार कर दे क्योंकि ज्यादातर स्थानांतरण नहीं चाहते।
श्री चिदंबरम: मैं इससे सहमत नहीं हूं कि ऐसा करना मुश्किल है।
डब्ल्यूएसजे: पूर्व कमिश्नर रिबेरियो और अन्य का कहना है कि पुलिस को पूरी व्यावसायिक स्वतंत्रता की वकालत करने वाले सुधारों को अपनाने हेतु राज्य विधानसभा को राज़ी करना कठिन है। वे कहते हैं कि राजनेता पुलिस पर नियंत्रण नहीं खोना चाहते।
श्री चिदंबरम: कृपया याद रखिए, ये विधायी शक्तियां राज्य विधानसभा के पास ही होती हैं। हम राज्य सरकारों के बॉस नहीं जो यह कह सकें कि उन्हें किस तरह का पुलिस कानून या फिर पुलिस प्रशासन अपनाना चाहिए। सारी बुद्धिमता दिल्ली में निवास नहीं करती।
स्वतंत्रता बेहद व्यक्तिपरक आकलन है। पुलिस बल कार्यकारी सरकार से पूर्ण रूप से स्वतंत्र नहीं रह सकते।
लिहाज़ा यह तथाकथित स्वतंत्रता-किस तरह की स्वतंत्रता है? सरकार से स्वतंत्रता? चयनित सरकार की नीतियों से स्वतंत्रता? स्वतंत्रता उन नीतियों से, जिनको लेकर कार्यकारी सरकार चाहती है कि पुलिस बल उन नीतियों का अनुगमन करें?
यहां ऐसी राज्य सरकारें भी हैं, जो विश्वास करती हैं कि निवारक निरोध बुरे हैं। और उन्होंने कभी भी निवारक निरोधों का उपयोग नहीं किया, निवारक निरोध की शक्ति जिसके तहत एक शख्स को एक साल तक हिरासत में बगैर किसी मुकदमे के रखा जा सकता है। लेकिन पुलिस भी एक शख्स को बगैर मुकदमे के हिरासत में लेना चाहेगी, लेकिन अगर चयनित सरकार महसूस करती है कि पुलिस का निवारक निरोध का दर्शन बुरा है, तो ये गलत क्यों है?
लोग सरकार को चुनते हैं और सरकार कहती है कि हमारी नीति के मुताबिक निवारक निरोध बुरे हैं, तब क्या पुलिस बल, पुलिस प्रमुख, सरकार से कहते हैं, “माफ कीजिए, मैं महसूस करता हूं कि निवारक निरोध अच्छे हैं। चलिए मुझे एक शख्स को बगैर मुकदमे के हिरासत में लेने दीजिए, मुझे आपसे स्वतंत्र रहना चाहिए और अपनी खुद की नीतियों का पालन करना चाहिए?”
लंदन पुलिस के दो क्रमानुगत कमिश्नरों को नए मेयर द्वारा पदच्युत कर दिया गया। इसका यह अर्थ नहीं कि लंदन पुलिस स्वतंत्र नहीं है और शक्तिहीन है। आखिरकार, वो राजनीतिक प्रबंधक ही तो हैं, जिन्हें जवाब देना होता है।
डब्ल्यूएसजे: आलोचक शिकायत करते हैं कि भारत में पुलिस को अच्छा प्रशिक्षण नहीं दिया जाता। सुप्रीम कोर्ट भी यह कहते हुए पुलिस अराजकता पर विस्तार से गया कि हिरासत में मौत और यातना खतरनाक स्थिति तक पहुंच चुकी है। क्या आप इन आलोचनाओं से सहमत हैं?
श्री चिदंबरम: इस विषय पर ज्यादा से ज्यादा वैज्ञानिक सुबूत होने चाहिए। ज्यादा से ज्यादा मामलों की जांच फोरेंसिक सुबूतों और वैज्ञानिक तौर पर इकट्ठा किए गए सुबूतों के आधार पर हो रही है। लेकिन यह एक बड़ा देश है और आप एक रात में बदलाव की उम्मीद नहीं कर सकते। हमें लोगों को फोरेंसिक सुबूत एकत्र करने के लिए प्रशिक्षण देना होगा। हमें कई प्रयोगशालाओं, उपकरणों और प्रशिक्षित फोरेंसिक वैज्ञानिकों की आवश्यकता है।
उदाहरण के लिए केन्द्रीय जांच ब्यूरो (सीबीआई) व्यापक तौर पर फोरेंसिक सुबूतों का इस्तेमाल करता है, लेकिन मैं निश्चित तौर पर यह नहीं कहूंगा कि छत्तीसगढ़ या फिर झारखंड के अंदरूनी इलाकों में मौजूद किसी पुलिस स्टेशन में जब चोरी या हत्या के आरोप में किसी को पकड़ा जाए, तो वो आरोप साबित करने के लिए सुबूतों के तौर पर फोरेंसिक सुबूतों को एकत्र करेगें। वो कदाचित पुराने दिनों की भांति कुछ कठोर और तैयार उपायों का ही सहारा लेगें, लेकिन स्थितियां बदल रही हैं।
डब्ल्यूएसजे: मैं मुंबई सेशन कोर्ट में चल रहे हत्या के एक अभियोग पर नज़र रखे हुए हूं। प्रदीप शर्मा नाम के एक शीर्ष पुलिस अफसर पर “फर्जी मुठभेड़” के तथाकथित आरोपों के चलते मुकदमा चलाया गया है। उन पर रियल स्टेट के एक ब्रोकर का अपहरण कर हत्या करने का आरोप है, जिसे उन्होंने तथाकथित शूटआउट दिखाकर छिपाया। दिल्ली और गुजरात में भी इसी तरह के मामले देखने में आए हैं। भारत में फर्जी मुठभेड़ के तथ्य के पीछे क्या कुछ है?
श्री चिदंबरम: मैं नहीं समझता कि ये व्यापक तौर पर मौजूद है। कुछ मुठभेड़ अवश्य शंका के घेरे में हो सकती हैं, लेकिन जब दिल्ली में एक पुलिस अफसर एक आतंकी मॉड्यूल का भांडाफोड़ करता है और उसमें अपनी जान गंवा देता है, तो उसे भी कुछ लोग फर्जी मुठभेड़ का नाम दे डालते हैं। उस मामले में तीन स्तरीय जांच में पाया गया कि वो एक फर्जी मुठभेड़ नहीं था, फिर भी कुछ ऐसे लोग हैं, जो अब भी इसे फर्जी मुठभेड़ का ही नाम देते हैं और भांडाफोड़ करने वाली टीम के खिलाफ कार्रवाई करने को कहते हैं।
निश्चित तौर पर यहां कुछ फर्जी मुठभेड़ के मामले सामने आए हैं, लेकिन हर मुठभेड़ फर्जी नहीं होती। विशेष तौर पर जब वो नक्सल-प्रभावित इलाकों में होती है, मीडिया की आदत है, वो इसे फर्जी मुठभेड़ कहकर उर्द्धत करती है। इनमें से ज्यादा वास्तविक मुठभेड़ वो होती हैं, जहां पुलिस दल पर गोलियां बरसाई जाती हैं और पुलिस जवाबी कार्रवाई करती है। चाहे एक मुठभेड़ फर्जी हो या फिर वास्तविक उसका फैसला जांच और पूछताछ के बाद होता है। गुजरात के मामले अब संदिग्ध फर्जी मुठभेड़ के माने जा रहे हैं। केवल जांच यह स्थापित करेगी कि वो फर्जी मुठभेड़ की घटनाएं थीं या नहीं।
यहां कुछ ऐसे मामले भी हैं, जहां राजनीतिक प्रतिद्वन्दिता या व्यक्तिगत प्रतिद्वन्दिता के चलते फर्जी मुठभेड़ कराई गई हों, लेकिन ज्यादातर मुठभेड़ वास्तविक ही होती हैं।
डब्ल्यूएसजे: क्या आप सोचते हैं कि भारत में कानून प्रवर्तन फर्जी मुठभेड़ संबंधी नागरिक शिकायतों और हिरासत में हुई मौतों को गंभीरता पूर्वक लेता है?
श्री चिदंबरम: मैं समझता हूं कि हमारे पास काफी नियामक और संतुलन हैं। यहां एक कार्यकारी सरकार है, जिससे लोग शिकायत कर सकते हैं। यहां एक मानवाधिकार आयोग है, जो कई मामलों में हस्तक्षेप करता है। छत्तीसगढ़ में मानवाधिकार आयोग कई आरोपों को देख रहा है। यहां उच्च न्यायालय हैं जो निजी आज्ञापत्र याचिकाओं, सार्वजनिक याचिकाओं और फर्जी मुठभेड़ के विशेष मामलों को देखते हैं। इसलिए मैं समझता हूं कि यहां कई नियामक और संतुलन हैं। अगर ये यहां नहीं होते, तो आपको इन मामलों के बारे में कैसे पता चल पाता।
डब्ल्यूएसजे: भारत व्यापक तौर पर आतंकी हमलों की चेतावनी का सामना करता है और आतंकवाद से लड़ाई आपके शीर्ष के अधिदेश में से एक है। क्या आप एक औसत पुलिस अफसर की आतंकवाद से लड़ने की प्रेरणा और क्षमता को लेकर चिंतित हैं?
श्री चिदंबरम: बिलकुल, मैं चिंतित हूं, लेकिन कृपया इस बात को समझिए कि भारत का ये औसत पुलिसवाला एक दिन में 12 से 14 घंटे काम करता है, हफ्ते की छुट्टी नहीं लेता है-उसे वो तीन या चार हफ्तों में एक बार मिलती है। उनके आवास अत्यन्त दयनीय हालत में हैं। उनके लिए देश में आवासीय संतुष्टि 15-20 फीसदी से ज्यादा नहीं है। लिहाज़ा जिन हालातों में एक औसत पुलिस वाला काम करता है, उसमें मौजूद कमियों को भी हमें समझने की आवश्यकता है। अगर आप मुंबई में पुलिसवालों के घर देखेगें, तो वो एक आभासीय झुग्गियां प्रतीत होती हैं, जिनमें वो रहते हैं वो व्यावहारिक रूप से एक झुग्गी-बस्ती है। कॉन्स्टेबल के करीब 400,000 से ज्यादा पद रिक्त हैं, जिसका अर्थ यह हुआ कि कई पुलिसवालों को दोहरी ड्यूटी करनी पड़ती है।
इन कमियों को देखते हुए, मूल्यों और नैतिकता में कुछ क्षरण अवश्य होगा। मैं समझता हूं कि यह अपरिहार्य है। लिहाज़ा इसका फटाफट उपाय नहीं किया जा सकता। अगर आप पुलिस में सुधार चाहते हैं, तो आपको ज्यादा कॉन्स्टेबल तैनात करने की आवश्यकता है। आपको उन्हें बेहतर काम के घंटे देने होगें, बढ़िया घर देना होगा, बढ़िया उपकरण देने होगें, आराम करने और पुन: काम पर लगने के लिए पर्याप्त वक्त देना होगा, समय-समय पर प्रशिक्षण देना होगा, जिसके लिए हमें सैकड़ों प्रशिक्षण संस्थानों की आवश्यकता पड़ेगी।
मैं समझता हूं कि हम पिछले कुछ सालों से इस क्षमता का ही निर्माण कर रहे हैं। राज्यों ने पिछले दो वर्षों के दौरान करीब 100,000 पुलिसवालों की भर्ती की है। जबकि केन्द्र ने पिछले दो सालों के दौरान अर्धसैनिक बलों में करीब 90,000 कॉन्स्टेबल भर्ती किए हैं। हमने कई प्रशिक्षण संस्थानों का भी गठन किया है।
उदाहरण के लिए, इंडो-तिब्बत बॉर्डर पुलिस के जवानों को एक साल में छह महीने अकेले 18,000 फुट की ऊंचाई पर बने 10-बाय-12 के बंकरों में बिताने होते थे। वो छह महीनों तक बंकर से बाहर ही नहीं निकल सकते थे। हमने इसे कम करके 4 महीने तक कर दिया है और मेरा लक्ष्य इसको और घटाकर तीन महीने तक करना है।
इसके अलावा सीमा सुरक्षा बलों के जवानों को हर दिन तीन से चार घंटे दो-दो चरणों में सोना पड़ता था। उन्हें लगातार आठ घंटे की नींद मयस्सर नहीं हो पाती थी। हमने अब इसमें बदलाव किया है, ताकि वो बेरोकटोक आठ घंटे की नींद ले सकें। लिहाज़ा, मैं समझता हूं कि भारत में पुलिसिया क्षमता में कमी के परिणामस्वरूप कई अवरोध हैं। हम क्षमता बढ़ाने के प्रयास कर रहे हैं, ताकि इनमें से कुछ कमियां दूर की जा सकें।
एक बार जब ये अवरोध दूर हो जाएगें, आपको पुलिस बेहतर नज़र आने लगेगी और पुलिस अफसर एक बढ़िया इंसान लगेगा। आप उस तरह के बदलाव नहीं चाहेगें, जिस तरह समस्याओं से जूझे बगैर नगर व्यवस्था की जाती है, जो पुलिस व्यवस्था में अवरोध उत्पन्न करते हैं और एक तरह से पुलिस कॉन्स्टेबलों को अमानवीय बनाते हैं।
पुलिस वालों को अमानवीय बनाने वाले इन तमाम अवरोधों और वस्तुनिष्ठ कारकों के बावजूद, इस देश में अपराध का निबटारा होता है, इस देश में अपराध को रोका जाता है, कानून-व्यवस्था बहाल की जाती है। और आप चाहें पुलिसवालों के बारे में जो कुछ कहें, संकट के समय में, आप सबसे पहले पुलिस स्टेशन का रुख करते हैं-एक पुलिसवाला सबसे पहले उत्तरदायी होता है। भारत की पुलिस व्यवस्था में तमाम खामियों के बावजूद, वो संकट की प्रत्येक घड़ियों में सबसे पहले जवाबदेह होता है।
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