जब विकृत या गलत या उल्टी प्रोत्साहन व्यवस्था भ्रष्टाचार को दंडित करने की बजाए ईनाम देती है, तब भ्रष्टाचार बढ़ने लगता है। हमें इस विकृत प्रोत्साहन का अंत करने के लिए संस्थागत परिवर्तनों की जरूरत है।
मुझे आशा है कि साल 2010 को एक ऐसे साल के रूप में याद किया जाएगा, जब नाराज मतदाता नेताओं को बाध्य कर देंगे कि वे राजनीति को एक फायदेमंद और कर मुक्त पेशे के रूप में देखना बंद करें। मीडिया में इन दिनों कई घोटाले जैसे अवैध खनन, आदर्श सहकारी समिति, राष्ट्रमंडल खेल और 2जी लाइसेंस जैसे मामले छाए हुए हैं।
लेकिन क्या इससे कोई बदलाव आ पाएगा? भारत में 1974 में जयप्रकाश नारायण और 1988-89 में विश्वनाथ प्रताप सिंह ने भ्रष्टाचार के विरोध में बड़ी मुहिम चलाई थी। भ्रष्टाचार ने सरकारें गिरा दी, लेकिन किसी प्रमुख हस्ती को किसी बात के लिए दोषी नहीं ठहराया जा सका। इससे भ्रम, "सब चलता है" की भावना और अंततः भ्रष्टाचार को फिर से बढ़ावा मिला।
आलोचकों का कहना है कि सुरेश कलमाड़ी और ए राजा के साथ कुछ खास नहीं होगा। जब-तक बड़े संस्थागत परिवर्तन नहीं किए जाएंगे, तब-तक भ्रष्टाचार को बढ़ावा देने वाले विकृत प्रोत्साहन जारी रहेंगे।
शुरुआत के लिए हमें तीन प्रमुख संस्थागत सुधारों की जरूरत है। सबसे पहले, हमें एक ऐसी व्यवस्था बनाने की जरूरत है, जो अपराधियों को राजनीति छोड़ने के लिए प्रेरित कर सके। दूसरा, हमें न्यायिक प्रोत्साहन की जरूरत है, जिससे न्याय में तेजी आ सके। तीसरा, हमें चुनाव आयोग की तर्ज पर एक स्वतंत्र पुलिस आयोग की आवश्यकता है, जो नेताओं के खिलाफ उनके प्रभाव की परवाह किये बिना जांच कर सके और उन पर मुकदमा चला सके, जिससे भ्रष्टाचार लाभदायक नहीं बल्कि अत्यधिक जोखिम भरा काम बन जाए।
सबसे पहले हमें उस अराजक स्थिति को खत्म करना चाहिए, जिसमें अपराधी राजनीति में शामिल हो जाते हैं और कई बार वे केबिनेट मंत्री भी बन जाते हैं। इससे उनका प्रभाव बढ़ जाता है और यह भी तय हो जाता है कि उन पर कोई मामला नहीं चलाया जाएगा। साल 2004 के आम चुनाव में 543 विजेताओं में से 128 पर अपराधिक आरोप थे। इनमें 84 हत्या के आरोपी थे, 17 डकैती के और 28 चोरी और जबरन वसूली के आरोपी थे। एक सांसद पर 17 हत्या करने का आरोप था। कोई भी पार्टी बेदाग नहीं थी। हर पार्टी में अपराधियों की संख्या काफी थी, क्योंकि इन सज्जनों नें उन्हें धन उपलब्ध कराया, बाहुबल और संरक्षण नेटवर्क उपलब्ध कराया, जिसे हर पार्टी ने उपयोगी समझा।
केवल संस्थागत परिवर्तन से ही राजनीति का अपराधीकरण रुक सकता है। आपराधिक मामलों का भण्डाफोड़ काफी नहीं है। हमें एक नए कानून की आवश्यकता है, जो ये अनिवार्य करे कि निर्वाचित सांसदों और विधायकों के खिलाफ सभी मामलों को सर्वोच्च प्राथमिकता दी जाएगी और जब तक ये मामले खत्म ना हो जाएं इन मामलों पर रोजाना सुनवाई होगी। ये नीति अपराधियों के लिए चुनावी जीत को एक अभिशाप बना देगी। ये उनको राजनीतिक रक्षा कवच देने की बजाय उन पर चल रही अदालती कार्रवाई में तेजी लाएगी। अगर इस तरह का एक कानून बन जाए, तो हम बहुत जल्द अपराधी विधायकों को और मंत्रियों को प्राथमिकता सुनवाई सूची से बाहर निकलने के लिए पद से इस्तीफा देते हुए पाएंगे। ये सुधार वास्तव में मौजूदा विकृत प्रोत्साहन को बदल सकता है। दूसरा, हमें न्याय की गति में तेजी लाने की जरूरत है। कई न्यायाधीश ढोंग रचते हुए यह दावा करते हैं कि "न्याय में देरी न्याय से वंचित करना है" फिर भी वे न्याय की लंबी और बोझिल प्रक्रिया अपनाते हैं और तीव्रता की जगह प्राथमिकता को महत्व देने की बात करते हैं।
कई देशो नें अपने न्याय में तेजी लाने के लिए कानून बनाए हैं, जो न्यायधीशों को शीघ्र न्याय देने के लिए बाध्य करे। अध्ययनों से ये पता चलता है कि ऐसी सारी कोशिशें विफल रही हैं। वैसे संस्थागत परिवर्तन सफल हुए हैं, जिनमें उन न्यायाधीशों को बढ़ावा दिया गया है, जो अधिकतम संख्या में मामलों का निपटारा करते हैं। एक बार ये प्रोत्साहन तय कर दिए जाएं, तो न्यायाधीश खुद शीघ्र प्रकिया और शॉर्टकर्ट अपनाने लगते हैं, जो दूसरों के लिए उदाहरण बनते हैं और जिसे बाकी न्यायाधीश भी अपनाते हैं। बेशक अकेले तेज गति से ही न्याय सुनिशचित नहीं होता है। पर ये आज की सबसे बड़ी जरूरत है, जिसकी कमी महसूस होती है।
तीसरा, हमें पुलिस को नेताओं के नियंत्रण से मुक्त करना चाहिए, जिससे वास्तव में एक स्वतंत्र पुलिस आयोग सामने आए, जो नेताओ के सामने चुनाव आयोग की तरह मजबूती से खड़े रह सके। कानून और व्यवस्था राज्य का विषय है, इसलिए हमें राष्ट्रीय पुलिस आयुक्त के अंतर्गत राज्यों के लिए भी पुलिस आयुक्त नियुक्त करने होंगे।
फरीद जकारिया ने कहा है कि लोकतंत्र की पहचान केवल चुनाव कराना या बहुमत की इच्छा का प्रतिनिघित्व (जिसका मतलब बहुमत द्वारा धार्मिक हिंसा भी हो सकता है) करना नहीं है, बल्कि स्वतंत्र संस्थानों का निर्माण करना भी है, जो नेताओं और बहुमत या भीड़ को न्याय में बाधा उपस्थित करने से रोक सके।
एन सी सक्सेना, जो 1962 के राष्ट्रीय पुलिस आयोग के अध्यक्ष थे, ने एक बार लिखा था कि पुलिस ने अब अपराध की जांच करना और अपराधियों को सजा दिलाने जैसे कार्यों को अपना प्रमुख कार्य मानना छोड़ दिया है। इसका कारण यह था कि हर राज्य में गृह मंत्रियों की प्राथमिकता अलग थी। गृह मंत्रियों की सर्वोच्च प्राथमिकता अपने राजनीतिक विरोधियों का दमन करने के लिए पुलिस का उपयोग करने की होती थी। दूसरी प्राथमिकता होती थी कि वे पुलिस और अभियोजन पक्ष का प्रयोग कर अपनी पार्टी और गठबंधन के सदस्यों पर चल रहे मुकदमों को कमजोर या खारिज करवाएं। तीसरी प्राथमिकता होती थी वीआईपी सुरक्षा। आखिरी प्राथमिकता थी अपराध का पता लगाना। इससे कोई राजनैतिक लाभ नहीं मिलता था, इसलिए इस पर सबसे कम ध्यान दिया जाता था।
इस मामले में भी केवल संस्थागत परिवर्तन से ही बेहतर परिणाम मिल सकता है। जापान में एक स्वतंत्र पुलिस आयुक्त है। फिर भारत में भी एक स्वतंत्र पुलिस आयुक्त क्यूं न हो? कानून और व्यवस्था आवश्यक रूप से राजनीतिक मामला है और यह गृह मंत्रियों के ही अधिकार क्षेत्र में होना चाहिए। लेकिन अपराध का पता लगाना राजनीतिक मामला नहीं हो सकता, इसलिए इसे पूरी तरह से एक स्वतंत्र पुलिस आयोग के जिम्मे डाल देना चाहिए।
हमें एक ऐसे भारत की जरूरत है जहां हर राजनेता को यह डर हो कि भ्रष्टाचार कर वे अंततः जेल में ही पहुंचेंगे। यही एक तरीका है, जिससे लोगों को गलत काम करने की अपेक्षा स्वतः नेक काम करने की प्रेरणा मिलेगी।
- स्वामीनाथन अय्यर
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